Massive crowd may be the indication to change”Bishnoi wins Hisar bypolls”

public indiacate change

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 This crowd trys to say sumthing....

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हजकां BJP गठबंधन की भीड़ कुछ कह रही है

हजकां के कार्यक्रमों-रैलियों में जनता ने बढ़-चढक़र हिस्सा लेकर इसका मुजाहिरा भी किया। हजकां के स्थापना दिवस (2 दिसंबर) को सिरसा में हुई जनसमर्थन महारैली में जब लाखों की भीड़ कुलदीप को सुनने के लिए इक हुई, तो एक बार कुलदीप भी अचंभित हो गए थे।

प्रदेश के मुयमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा अपनी तारीफों के पुल बांधने में कभी नहीं चुकते हैं लेकिन 2 दिसंबर को हरियाणा जनहित कांग्रेस की सिरसा में हुई रैली में पहुंचे लाखों लोगों की भीड़ कांग्रेस सरकार की
कार्यशैली से खुश नहीं दिखी। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि कांग्रेस सरकार द्वारा एक के बाद एक अलोकतांरक फैसल करन और इंडियन नेशनल लोकदल के कर्ताधर्ता चौटाला बंधुओं पर लगे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के कारण राज्य में हजकां-भाजपा गठबंधन का राजनीतिक ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। हरियाणा में एक पार्टी है- हरियाणा जनहित कांग्रेस (हजकां)। प्रदेश की राजनीति में कद्दावर नेता रहे स्व. चौधरी भजनलाल के छोटे बेटे कुलदीप बिश्नोई इस पार्टी के सर्वेसर्वा हैं। मजबूत राजनीतिक विरासत होने के बावजूद
अपनी नई पार्टी के गठन के शुरूआती वर्षों में कलुदीप को वसैा जनसमथर्न नही मिला, जिसकी वह उ मीद कर रहे थे, लेकिन अब जब प्रदेश की जनता यह समझने लगी है कि कांग्रेस और इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) के नेता भ्रष्टाचार में आकंड डूबे हुए हैं और इन दलों में परिवारवाद हावी है, तब लोगों की उ मीदें हजकां से बढऩे लगी हैं। हजकां के कार्यक्रमों-रैलियों में जनता ने बढ़-चढक़र हिस्सा लेकर इसका मजुाहिरा भी किया। हजका के स्थापना दिवस (2 दिसंबर) को सिरसा में हुई जनसमर्थन महारैली में जब लाखों की भीड़ कुलदीप को सुनने के लिए इक हइुर्, तो एक बार कलुदीप भी अचंभत हो गए थे। उन्हें भी उ मीद नहीं थी कि उन्हें और उनकी पार्टी को इतना ज्यादा जनसमथर्न मिलगेा। रलैी म आर्इ भीड क़ो दखेकर गदगद हएु कलुदीप ने कहा कि यह भीड़ जुटाई हुई नहीं है, बल्कि प्रदेश की कांग्रेस सरकार की नीतियों से तंग आकर लोग स्वयं उनके साथ जुड़ रहे हैं। पांच साल पहले हुड्डा के गृह स्थान रोहतक में हुड्डा ग्राउंड में जनहित रैली में जब पूरे- प्रदेश से ला लोगों ने हिस्सा लिया था तो राज्य की समस्त जनता ही नहीं राजनीति के तमाम दिग्गजों ने माना था कि इनती बड़ी रैली पहले क नहीं हुई पर पांच साल बाद फिर लोगों का वही हुजूम सिरसा के दशहरा ग्राउंड में दे कर लोग अचं त रह गये साथ ही राजनीति में चाल ला दिया है। दरअसल हरियाणा की राजनीति को समझने वाले बताते हैं कि प्रदेश की सत्ता में अब तक कांग्रेस और इनेलो का ही कब्जा रहा है, लेकिन बीते कुछ सालों से प्रदेश की जनता नए नेतृत्व की तलाश में थी, जो अब लगता है कि कुलदीप पर जाकर खत्म हुई है। दरअसल कांग्रेस और इनेलो में से जो भी सत्ता में आया, उसने अंधा बांटे रेवडिय़ां, फिर-फिर अपनों को दे कहावत को ही चरितार्थ किया। सरकारी योजनाओं व संसाधनों को इस तरह खुलेआम लूटा गया कि जनता हतप्रभ रह गइर्। राज्य की मौजदूा हालत पर कलुदीप कहते हैं कि कांग्रेस के वर्तमान शासन में जाति व क्षत्र्ेा के नाम पर भदेभाव को बढा़वा दिया गया है। इसके अलावा गुंडाराज, महंगाई, भ्रष्टाचार से प्रदेश की जनता तंग आ चुकी है।
जनता के आशीर्वाद से हजकां के गठन के पांच साल के कार्यकाल में उन्होंने कांग्रेस सरकार के विरूद्ध आम जनता का साथ देते हुए डट कर संघर्ष किया है। अगर जनता ने आगे भी इसी तरह साथ देते हुए हजकां-भाजपा गठबन्धन को सत्ता सौंपी, तो वे राजनीति के मायने ही बदल देंगे। इतनी बड़ी सं या में किसी रैली में महिलाओं की सं या पहले क नहीं दि । रैली में पुरूषों के समान ही महिलाओं में जोश दे ने को मिला। हरियाणा में महिलाओं
की स्थिति पर दिए गए षणों पर महिलाओं ने तालियों की गडग़ड़ाहट के साथ समर्थन किया। बहरहाल, हजकां की सिरसा में हुई रैली में जिस तरह लोगों का हुजूम पहुंचा, उससे कुलदीप काफी उत्साहित हैं और उनका कहना है कि वे अन्य जगहों में भी ऐसी रैलियां आयोजित करेंगे। सोनीपत संसदीय क्षेत्र के हजकां प्रभारी जोगेंद्र कालवा ने कहा कि हजकां-भाजपा का ग्राफ प्रदेश में बढ़ता जा रहा है। हजकां सुप्रीम कुलदीप बिश्नोई 36 बिरादरी के नेता हैं और वे सभी बिरादरियों को साथ लेकर चलते हैं। कुलदीप युवाओं के भी सच्चे हितैषी हैं और वे ही युवाओं के हितों की रक्षा करने में सक्षम हैं। बहरहाल, अभी भी कुलदीप को राजनीति में लंबा रास्ता तय करना है। इस रास्ते पर भाजपा उनसे कंधे से कंधा मिलाकर जरूर चल रही है, लेकिन हरियाणा में भाजपा का ज्यादा वजूद नहीं है, इसलिए जानकारों का कहना है कि अभी कुलदीप को और मेहनत करने की जरूरत है। जानकारों के मुताबिक यदि हजकां-भाजपा गठबंधन प्रदेश की सत्ता में काबिज होगा, तो उसका पूरा श्रेय कुलदीप की मेहनत को जाएगा। दरअसल दिल्ली में भाजपा के नेता देश की राजनीति को बदलने के बड़े-बड़े दावे करते हैं, लेकिन उन्हें दिल्ली से सटे हरियाणा की सुध लेने की फुर्सत नहीं मिलती है। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज खुद को प्रधानमंत्री का स्वभाविक प्रधानमंत्री बताती हों, लेकिन उनके गृहराज्य में उनकी पार्टी की क्या हालत है, यह जानने का उनके पास समय ही नहीं है। वह स्वयं भी चुनाव हरियाणा से नहीं, बल्कि मध्य प्रदेश से लड़ती हैं। वैसे कहते हैं कि यह बात कुलदीप भी बखूबी समझते हैं कि उन्हें भाजपा से ज्यादा उ मीद करने की बजाय अपने प्रयासों से इस गठबंधन को सत्ता दिलानी है। बहरहाल, इस पर राजनीतिक पंडितों की नजरें लगी हुई हैं कि प्रदेश में होने वाले अगले विधानसभा चुनाव में कुलदीप क्या कमाल दिखाते हैं।

NO Narco test and Brain mapping from now….

देश में अपराधियों की ब्रेम मेपक के मामले पर अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी सवाल खड़े कर दिए है… (आदित्य सिन्हा)

Narco and brain mapping

आरुषि हत्याकांड में 17 मई 2010 को अभियुक्तों की मर्जी के खिलाफ ही
उनका नारकोएनालेसिस व ब्रेनमैपिंग परीक्षण करवाया गया था जिसका परिणाम
कुछ नहीं निकला। हैदराबाद की मक्का मस्जिद में बम धमाकों के अभियुक्तों
देवेंद्र गुप्ता व लोकेश के भी उनकी मर्जी के खिलाफ परीक्षण करवाए गये थे
जिसके लिए उन्होंने कोई सहमति नहीं दी थी। अगस्त 2010 में भी पुणे में
महिला प्रसूति शल्य चिकित्सक सहित चार लोगों का परीक्षण करवाया गया था।
इन पर 66 बच्चों को गर्भ में ही मारने का आरोप था। 2008 में महिला सहित
तीन अभियुक्तों का परीक्षण करवाया गया जिसमें एक अभियुक्त की तबीयत
खराब हो गई थी तथा परीक्षण रोक दिया गया था।

भी हाल ही में दिल्ली की गीतिका आत्महत्या मामले में आत्महत्या के लिए उकसाने का अभियुक्त व हरियाणा सरकार के पूर्व गृहमंत्री गोपाल कांडा के ब्रेन मैपिंग टेस्ट के लिए दिल्ली पुलिस ने प्रयास किए थे क्योंकि वह जांच में सहयोग नहीं कर रहा था। लेकिन पुलिस को सफलता नहीं मिली और दिल्ली पुलिस को बिना ब्रेन मैपिंग टेस्ट के ही जांच आगे बढ़ानी पड़ी क्योंकि यह टेस्ट अब अभियुक्त की स्वीकृति के बिना नहीं हो सकता। हैदराबाद की सीबीआई की विशेष अदालत के न्यायाधीश यू. दुर्गाप्रसाद ने आय से अधिक संपत्ति एकत्रित करने के आरोप में आंध्र प्रदेश के सांसद तथा वाईएस कांग्रेस के सुप्रीमो जगन मोहन रेड्डी व उनके सहायक विजय साई रेड्डी के खिलाफ सीबीआई की उस याचिका को खारिज कर दिया है जिसमें सीबीआई ने इन दोनों के खिलाफ नारकोएनीलेसिस,ब्रेन मैपिंग तथा पॉलीग्राफ परीक्षण करवाने की प्रार्थना की थी। सांसद जगन मोहन रेड्डी आंध्र के पूर्व मु यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी के पुत्र है और उन पर अपने पिता के मु यमंत्रीत्व काल में आय से अधिक करोड़ों रुपए बटोरने का आरोप है जिसकी जांच सीबीआई कर रही है। सीबीआई ने अदालत को बताया कि जगन मोहन से 27 मई को उनकी गिर तारी के बाद 30 जून तक 92 घंटे तथा विजय साई से पिछले छह माह में 300 घंटे पूछताछ की गर्इ लेिकन सीबीआर्इ दोनो ंस ेकछु भी नही ंउगलवा पाइर्। सीबीआर्इ न ेइसीलिए अदालत से उनके नारको व अन्य परीक्षणों की प्रार्थना की थी। अदालत के सामने सुप्रीम कोर्ट के 5 मई 2010 के उस निर्णय को रखा गया जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई को आदेश दिए थे कि अभियुक्त की बिना सहमति के नारको व अन्य वज्ञ्ैाानिक परीक्षण नही ंकिए जाए ंजिनम ेंअभियक्तु को कोई पदार्थ दिया जाता हो। न्यायाधीश यू. दुर्गाप्रसाद ने इससे पहले भी फरवरी 2012 में विजय साई रेड्डी के नारको परीक्षण के लिए मना किया था। सीबीआई ने इस आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील दायर की थी। वहां भी सीबीआई की दाल नहंीं गली। अंत में सुप्रीम कोर्ट ने अपने पहले 2010 के आदेश के अनुसार ही नारको परीक्षण के सभी मामलों को तय करने के आदेश दिए जिसके अनुसार दोनों अभियुक्तों के नारको परीक्षण करवाने के लिए बिना उनकी सहमति के परीक्षण करवाने को मना कर दिया। अब सीबीआई के पास अदालत में आरोपपत्र पेश करने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है। सेल्वी एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों तत्कालीन मु य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ,न्यायाधीश आरवी रविंद्रन तथा न्यायाधीश जेएम पांचाल की खंडपीठ के समक्ष बचाव पक्ष की ओर से मई
2010 को कहा गया था कि इन नारको परीक्षणो ंम ेंटथू सीरियम, जिस ेअतंरराष्टी्रय बाजार में सोडियम पेंटाथॉल के नाम से जानते हैं, अभियुक्त को इंजेक्शन के माध्यम से दी जाती है। यह पदार्थ पीले रंग का चीनी के दाने के आकार का होता है जिसे दवा के रूप में तैयार किया जाता है। इस दवा से परीक्षण करवाने वाला हल्की बेहोशी की हालत में आ जाता है और उस अवस्था में उससे पूछताछ की जाती है। रिकार्ड के लिए उस परीक्षण की सीडी भी बनाई जाती है जिसे अदालत में उसके खिलाफ ही प्रयोग किया जाता है। दुनिया में ओहिया सबसे पहला राज्य है जहां इस दवा का प्रयोग फांसी देने के लिए दिसंबर 2009 में आरंभ किया गया था। वहां वैसनिथ बिस नाम के व्यक्ति को इस दवा के जरिये मौत की सजा दी गई थी, जिसकी मृत्यु 10 मिनट में हो गई थी। इसके बाद वहां वर्मन स्मिथ तथा दरयाल दुर्र नाम के व्यक्तियों को इसी दवा के जरिये मौत की सजा दी गई थी जिन्हें मरने में आठ मिनट का समय लगा था। अमेरिका में ही इस दवा के जहरीले इंजेक्शन से 10 सितंबर 2010 को वैसनिथ ब्राउन को फांसी दी गई थी जिसे मरने में केवल डेड़ मिनट का समय लगा। अमेरिका ने इस दवा की मात्रा पांच ग्राम रखी थी। इनके अलावा भी सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह कहा गया कि ये सभी परीक्षण हमारे संविधान के अनुच्छेद 20(3) के प्रतिवूसल हैं क्योंकि संविधान के इस अनुच्छेद में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को उसे अपने ही खिलाफ गवाही देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। यहां इन परीक्षणों के द्वारा लिए गए अभियुक्त के बयान का प्रयोग उसके ही खिलाफ किया जाता है। इसके अलावा भी सीआरपीसी 1973 की धारा 161(2) का भी इन परीक्षणों के द्वारा उल्लंघन होता है जिसके अनुसार यह माना जाता है कि अभियुक्त जो भी बयान दे रहा है वही सच है और उसके द्वारा जांच अधिकारी के समक्ष दिए गए बयान को ही सच माना जाएगा। इन परीक्षणों से लिए गए बयान उपरोक्त धारा में दिए गए बयानों से अक्सर भिन्न हो जाते हैं जिससे इस धारा का उल्लंघन होता है। तीन जजों की खंडपीठ ने उपरोक्त सभी पर घ्यान करते हुए निर्णय दिया था कि नारकोएनालेसिस, ब्रेनमैपिंग,पॉलीग्राफ तथा ब्रेन इलेक्ट्रीकल एक्टीवेशन पो्रफाइर्ल जसै ेकोर्इ भी परीक्षण अभियक्तु की बिना मर्जी के नहीं ंकिया जा सकता। राष्टी्रय मानव अधिकार आयोग की सिफारिशो ंको घ्यान म ेंरखत ेहएु अदालत ने सहमति शब्द की भी विस्तृत व्या या की है। अदालत ने कहा कि अभियुक्त का कोई भी परीक्षण उसकी सहमति के बिना नहीं कराया जा सकता। यहां सहमति का मतलब सीबीआई की बात को स्वीकार करने से नहीं है। अदालत ने कहा कि सीबीआई को अभियुक्त को उसके वकील के समक्ष बताना होगा कि जो भी परीक्षण सीबीआई करवाने जा रही है उसके कुछ विपरीत प्रभाव भी हैं जिनके प्रभाव से उसका स्वास्थ्य खराब हो सकता है और दवा की मात्रा गलती से भी अधिक देने पर उसकी मौत हो सकती है। वकील को भी अपने मवुक्किल को समझान ेके लिए समय दनेा होगा। इसके बाद सीबीआई उस अभियुक्त को सक्षम न्यायालय में उसके वकील की उपस्थिति में पेश करेगी, जहां वकील के सामने संबंधित जज उस अभियुक्त से जानकारी लेगा कि उसे इन परीक्षणों के बारे में जो बताया गया है,वह सही है अथवा नहीं। इसके बाद उस अभियुक्त के बयान लिए जाएंगे जिसमें वह अपनी सहमति दर्ज करवा सकता है। यहां भी उस अभियुक्त के पास मौका है कि वह इन परीक्षणों के लिए मना कर सकता है। सहमति के बाद ही उसका परीक्षण किया जा सकता ह ैलेिकन यह परीक्षण किसी चिकित्सक की उपस्थिति में ही संपन्न किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद देश में इन परीक्षणों में कमी तो आई है लेकिन अभियुक्त की बिना सहमति के अभी भी परीक्षण जारी हैं। आरुषि हत्याकांड में 17 मई 2010 को अभियुक्तों की मर्जी के खिलाफ ही उनका नारकोएनालेसिस व ब्रेनमैपिंग परीक्षण करवाया गया था जिसका परिणाम कुछ नहीं निकला। हैदराबाद की मक्का मस्जिद में बम धमाकों के अभियुक्तों देवेंद्र गुप्ता व लोकेश के भी उनकी मर्जी के खिलाफ परीक्षण करवाए गये थे जिसके लिए उन्होंने कोई सहमति नहीं दी थी। अगस्त 2010 में भी पुणे में महिला प्रसूति शल्य चिकित्सक सहित चार लोगों का परीक्षण करवाया गया था। इन पर 66 बच्चों को गर्भ में ही मारने का आरोप था। 2008 में महिला सहित तीन अभियुक्तों का परीक्षण करवाया गया जिसमें एक अभियुक्त की तबीयत खराब हो गई थी तथा परीक्षण रोक दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पहले भी अत्तूसबर 2009 में भी दिल्ली के एक मजिस्टे्रट ने माओवादी नेता कोबाद घांडी के नारको व ब्रेनमैपिंग परीक्षणों के लिए आदेश दे दिए थे लेकिन उसने इसका विरोध किया था तथा दिल्ली उच्च न्यायालय की जज इंद्रमीत कौर ने इन परीक्षणों को करवाने से सीबीआई रोका था। अगस्त 2010 में इलाहाबाद के मु य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने वहां हुए बम धमाके के दो अभियुक्तों के नारको परीक्षण के लिए आदेश दिए थे लेकिन उच्च न्यायालय ने मना करने पर /उनका परीक्षण नहंीं हो पाया। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद सीबीआई ने पूरे देश में अभियुक्तों की सहमति लिए बिना ही लगभग 26 नारको परीक्षण करवाए हैं जबकि सांसद जगन मोहन रेड्डी सहित विभिन्न मुकदमों में लगभग 200 लोगों ने सहमति देने के लिए मना कर दिया। सीबीआई के पूर्व निदेशक अश्वनी कुमार का कहना है कि मक्का मस्जिद और समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों में आपस में कोई संबंध अवश्य है लेकिन इन वैज्ञानिक परीक्षणों के न होने के कारण जांच में बाधा पड़ गई। सुप्रीम कोर्ट के वकील व संविधान विशेषज्ञ हरीश साल्वे का कहना है कि संविधान में अनुच्छेद 19 में बोलने की स्वतंत्रता का अधिकार दिया है
और अनुच्छेद 20(3) में चुप रहने का भी अधिकार भी दिया गया है जिसके अनुसार व्यक्ति अपनी मर्जी से चुप भी रह सकता है। उसे बोलना चाहिए या चुप रहना चाहिए ,यह उसका व्यक्तिगत अपना निर्णय होना चाहिए। इन परीक्षणों से संविधान में दिए गए अधिकारों का हनन तो होता है और उसके जीवन को भी खतरा हो सकता है। इन परीक्षणों से अनुच्छेद 21 में स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार भी प्रभावित होता है। परीक्षणों से जांच एजेंसी जो कुछ साबित करना चाहती है वह मकसद
भी अक्सर पूरा नहीं होता। बहुत से मामलों में कुछ भी नहंी निकला और बिना वजह ही उस टूथ सीरियम दवा का सेवन अभियुक्त को करवाना पड़ा। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय की प्रशंसा करते हुए कहा कि सीबीआई को अब बिना सहमति के परीक्षण नहीं करवाना चाहिए और यदि करवाती है तो सीबीआई के उन अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता है जो परीक्षण करवाते हैं। नारको व ब्रेन मैपिंग जैसे परीक्षणों के लिए सहमति देना या उसके लिए मना करना भी अभियुक्त का अपना निजी कानूनी अधिकार है।

Will Sheila Dixit Retain her power in Delhi Again..

She and Her Delhi..

She and Her Delhi..

                                                                                                   फिर दिल्ली फतह की तैयारी में शीला

शीला जी को दिल्ली संभाले 14 बरस होने वाले हैं और ज्यादा नहीं तो कम से कम 14 बार यह हवा जरूर चली होगी। फिर भी, वह कायम हैं और अगर अनहोनी न हुई तो इंशाअल्लाह वह 15 बरस भी पूरे कर सकती हैं और संभव है कि लगातार चौथी बार जीतने के इरादे से विधानसभा चुनावों में उतरें। अब सवाल यह है कि ऐसी हवा कौन चलाता है। जब 1998 में कांग्रेस ने शीला दीक्षित के नेतृत्व में चुनाव लड़ा था तो वह करिश्माई व्यक्तित्व नहीं थीं। कांग्रेस ने ऐसा कुछ किया भी नहीं था कि 70 सदस्यीय विधानसभा में 53 सीटें जीत जाए। तब बीजेपी को प्याज ने मार डाला था। प्याज की महंगाई ने जनता को रुला दिया था और बीजेपी इस रूदन को सुन ही नहीं पाई थी। शीला दीक्षित के सीएम बनने में किसी बड़े कांग्रेसी को कोई एतराज नहीं था। सभी उन्हें 10, जनपथ से भेजा हुआ प्रतिनिधि मानते हुए खामोश थे। यह खामोशी इसलिए भी थी कि वे अंदर ही अंदर आश्वस्त थे। सभी धुरंधर कांग्रेसी उनके शपथ ग्रहण समारोह में ही दावा कर रहे थे कि यह तो 4-6 महीने का स्टॉप गैप अरेंजमेंट है। उसके बाद तो धुरंधरों में से ही कोई गद्दी संभाल लेगा। अब पीछे मुडक़र देखें तो वे सारे धुरंधर धूल धूसरित होते नजर आते हैं। अब शीला दीक्षित ही सबसे बड़ी धुरंधर हैं। हां, इस दौरान शीला दीक्षित को अपनों का ही ज्यादा विरोध सहना पड़ा। बीजेपी तो कमोबेश निष्प्राण ही रही लेकिन सीएम की कुर्सी हिलाने का या यों कहिए कि कुर्सी हिलाने की हवा चलाने का काम कांग्रेसियों ने जमकर किया। 2004 के बाद तो केंद्र में कांग्रेस के शासन संभालने के बाद तो यह हवा गाहे-बगाहे चलती ही रहती है। जब भी केंद्र में बदलाव की चर्चा होती है या मंत्रिमंडल में विस्तार के हालात पैदा होते हैं, यह हवा भी गि ट पैक की तरह साथ ही चली आती है कि शीला जी को केंद्र में भेजा जा रहा है। ऐसी हवा चलाने वालों के अल्टिमेटम भी तय होते हैं – कभी प्रदेश कांग्रेस से सीधा टकराव, कभी कॉमनवेल्थ गे स की मजबूरी, कभी गे स
के बाद करप्शन के आरोप तो कभी बगावत का सिलसिला। देखते ही देखते 14 बरस बीत गए लेकिन यह हवा बेअसर रही। हां, उसका इतना असर अवश्य हअुा कि कर्इ बार शीला दीक्षित न ेअपन ेआपको और मजबतू साबित करने के लिए या तो मंत्रियों के विभाग बदल दिए या फिर उन्हें ही बदल दिया। अब फिर हवा चल रही है। इस बार की हवा शीला दीक्षित को दिल्ली से तो हटा रही है लेकिन उनका राजनीतिक कद और बढ़ा रही है। दिल्ली की मु यमंत्री की तुलना में केंद्र में होम मिनिस्टर बन जाना बहुत बड़ा एलिवेशन ही तो है। इसीलिए कुछ लोग यह भी मानते हैं कि यह हवा उनके मुफीद है और शीला दीक्षित खुद भी ऐसा ही चाहती हैं। इसीलिए संभव है कि हवा उनके समर्थकों की ओर से ही चली हो। वैसे, वह खुद इस बात से इनकार करती हैं लेकिन उनके धुर विरोधी एक केंद्रीय मंत्री का मानना है कि अब शीला दीक्षित को केंद्र में नहीं ले जाया जाएगा। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कांग्रेस उन्हें बदलती है तो वह खुद ही बैकफुट पर चली जाएगी। कांग्रेस मान लेगी कि शीला दीक्षित को फेल होने के कारण बदला गया है जबकि सचाई यह है कि कांग्रेस तो क्या बीजेपी में भी ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिसे सामने रखकर वह आगामी विधानसभा चुनाव लड़ ले। बीजेपी ने 1998 के चुनावों से ठीक पहले यही गलती की थी और साहिब सिंह वर्मा को हटाकर सुषमा स्वराज को ले आए थे। जनता में यही संदेश चला गया कि बीजेपी खुद ही गलती मान रही है। कांग्रेस में डॉक्टर ए. के. वालिया या अजय माकन को सरकार पर पूरी पकड़ बनाने और फिर अपने नेतृत्व में अगला चुनाव जिताने के लिए पूरा समय ही कहां मिल पाएगा। प्रदेश अध्यक्ष जयप्रकाश अग्रवाल तो खैर कहीं दौड़ में ही दिखाई नहीं देते। यह सच है कि कांग्रेस कब क्या फैसला कर ले, अंदाजा लगाना मुश्किल है लेकिन हवा की हवा निकल जाए तो भी कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। विधानसभा चुनाव नवंबर 2013 में होने हैं और दिल्ली सरकार को काम करने के लिए अभी एक साल और बचा है। सच तो यह है कि शीला सरकार अभी से ही आगामी चुनावों के मैनेजमेंट में जुट गई हैकोई कुछ भी कहे, सीएम शीला दीक्षित तीन बार विधानसभा चुनाव जीतने के बाद चुनावी मैनेजमेंट की मास्टर हो चुकी हैं। अब एकाएक योजनाओं की बाढ़ आ गई है। मंत्री ज्यादा ऐक्टिव हो गए हैं। ऐसी योजनाएं लागू की जा रही हैं कि उनका यह संदेश साफ तौर पर जाए कि सरकार काम कर रही है। बहुत से लोग मानते हैं कि सडक़ें, लाई ओवर, सब-वे, बसें और अन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर से मिली सुविधाओं को देखकर ही जनता ने तीनों बार शीला सरकार को चुना है। कॉमनवेल्थ गे स के बाद से ऐसे बड़े प्रॉजेक्टों पर ब्रेक लग गया था लेकिन अब फिर से वे प्रॉजेक्ट बेपर्दा होने शुरू हो गए हैं। विकासपुरी से नोएडा तक के 40 किमी. के सफर को सुहाना बनाने का अभियान शुरू हो गया है। ईस्टर्न और वेस्टर्न कॉरिडोर पर बात फिर चल पड़ी है। मुनक नहर पर हरियाणा से जवाब तलब हो रहा है। सरकार अब दिल्ली को केरोसीन फ्री सिटी बनाने का दम भर रही है। अन्नश्री, गरीब महिलाओं के बैंक खाते और विकलांगों को पेंशन ऐसी योजनाएं हैं जो जमीनी स्तर पर कैसी भी हों लेकिन उनका ऐसा प्रचार अवश्य किया जाएगा कि सरकार की पॉजिटिव छवि जनता के दिमाग पर छा जाएगी। अब सवाल यह है कि इस मैनेजमेंट को विपक्ष क्यों नहीं तोड़ पाता? विपक्ष से पहले तो पक्ष की ही बात कर लें। शीला दीक्षित का त ता पलटने के लिए कांग्रेस में कम उठापटक नहीं हुई लेकिन तीसरी बार चुनाव जीतने के बाद वे स्वर मद्धम पड़ गए। कॉमनवेल्थ गे स घोटालों की गूंज ने एक बार खतरा पैदा किया था लेकिन सचाई यह है कि सीएम की गद्दी को फिलहाल अपनों से कोई खतरा नहीं है। वह चुनावी मैनेजमेंट में इन अपनों पर भी विश्वास नहीं करतीं बल्कि उनकी बहन-बेटी और घर के अन्य लोग बागडोर संभालते हैं। किसी भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को उन्होंने विश्वास लायक नहीं माना और उनका अनुभव सही भी साबित हुआ है। दूसरी तरफ, बीजेपी भी इस मैनेजमेंट का तोड़ नहीं निकाल पाई। एमसीडी चुनावों की जीत का खुमार अभी टूटा ही है लेकिन बीजेपी नेताओं की सारी ताकत च्सीएम इन वेटिंगज् का फैसला करने में ही निकल जाती है। बीजेपी मानकर चल रही है कि अभी काफी वक्त पड़ा है और अभी तेल देखना है, तेल की धार देखनी है। बीजेपी के तीन च्वीज् विजेंद्र गप्तुा, विजय गोयल और विजय मल्होत्रा की सक्रियता शीला को टक्कर देने की बजाय आपस में ही टक्कर लेने तक सीमित हो जाती है। पिछले विधानसभा चुनावों से पहले भी बीजेपी की ताकत वहीं तक सिमट गई। हां, बीजेपी अगर अभी से तय कर ले और उस फैसले को घोषित भी कर दे तो शायद टकराव की वर्तमान स्थिति खत्म हो जाए। तब बीजेपी शीला के मैनेजमेंट का तोड़ भी ढूंढने की कोशिश कर सकती है। फिलहाल तो शीला ने बिसात भी बिछा ली है और अपनी चालें भी चल रही हैं। बीजेपी को जरूरत है टॉनिक की
दिल्ली में बिल लोगों पर बिजली गिरा रहे हैं। सरकार तक बिजली के झटकों से आहत है और इससे उबरने के रास्ते तलाश कर रही है। सोचा था, चुनाव अगले साल हैं। इस साल जितने सितम ढाने हैं, ढा लो। नाम भले ही डीईआरसी का हो, लेकिन क्या मजाल है कि सरकार की मर्जी के बिना पत्ता भी हिल जाए। रेट कम करने का आदेश इसीलिए तो जारी नहीं हो पाया था। फिर, सरकार को यह भी आशंका नहीं थी कि केजरीवाल इस लड़ाई में कूद
जाएंगे। बीजेपी को तो सरकार कुछ समझती ही नहीं। पिछले 14 साल में एक बार भी ऐसा मौका नहीं आया, जब यह लगा हो कि बीजेपी सरकार को हिला पार्इ ह।ै अब केजरीवाल के हमलो ंस ेसरकार बकैफटु पर गर्इ तो बीजपेी को भी सफार्इ दनेी पडी़ कि बिजली के फ्रंट पर उसने क्या कुछ नहीं किया। सच है- धरने दिए, पोस्टर-बैनर लगाए, प्रदर्शन किए। पर सरकार के कानों पर तो जूं भी नहीं रेंगी। आखिर क्यों? कोई भी टॉनिक बीजेपी की सेहत नहीं बना पाया और उसकी हालत कुपोषित बच्चे जैसी ही रही है। दिल्ली में बीजेपी की कमजोरी ठीक वैसी ही है, जैसी हाईकमान में है। वाजपेयी-आडवाणी के बाद बीजेपी को चलाने के लिए भारी-भरकम शरीर भी काम नहीं आ रहे। वाजपेयी-आडवाणी का राष्ट्रीय स्तर पर जो मुकाम था यानी किसी पद पर रहें या नहीं, जनता उन्हें स मान की दृष्टि से देखती थी। वही हालत दिल्ली में खुराना-मल्होत्रा-साहनी की थी। वाजपेयी उम्र के आगे झुक गए, तो आडवाणी को पार्टी ने खुद ही दरकिनार कर दिया। आज भी आडवाणी अन्य नतेाओ ंकी तलुना म ेंज्यादा स्वीकार्य होंगे। दिल्ली में खुराना को पार्टी ने खुद निपटा दिया और साहनी को दरकिनार कर दिया। मल्होत्रा अब दरकिनार हो रहे हैं। जिस तरह राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी ने नंबर दो की पंक्ति तैयार नहीं की, उसी तरह दिल्ली में भी इस च्तिकड़ी के बाद कौनज् के सवाल का जवाब तलाशा ही नहीं गया। ऐसा नहीं है कि मौके नहीं आए। बीजेपी दिल्ली में कई बार सत्ता में आई लेकिन दूसरी पंक्ति के नेता उतने ही उम्रदराज रहे जितनी यह तिकड़ी। लिहाजा एकाएक नेतृत्व का अभाव पैदा हो गया है। खुराना के बाद मल्होत्रा हैं लेकिन वह इतने लंबे अरसे तक केंद्र की राजनीति में रहे हैं कि दिल्ली में उनकी दाल नहीं गली। कोहली को आजमाया। डॉक्टर हर्षवर्धन भी कई साल तक अध्यक्ष रहे लेकिन वही स्थिति रही, जैसी हाईकमान में मुरली मनोहर जोशी, वेंकैया नायडू या फिर राजनाथ सिंह की रही है। राजनीतिक कद और पार्टी
में स्वीकार्यकता कभी नहीं मिली। दरअसल, हाईकमान या दिल्ली दोनों ही जगह पार्टी को संभालने-संवारने की बजाय नेताओं का लक्ष्य प्रधानमंत्री या मु यमंत्री की कुर्सी हो जाती है। बीजेपी 2004 से अब तक इसी चिंता में डूबी जा रही है कि वाजपेयी के बाद प्रधानमंत्री पद को कौन सुशोभित करेगा? यह सवाल तो तब पैदा होगा, जब सत्ता में आएंगे। लेकिन सत्ता में कैसे आएं? इस सवाल पर पार्टी नतेाओ ंकी गभंीरता दिखार्इ नही ंदतेी। यही हाल दिल्ली का भी है। मु यमंत्री कौन बनेगा- मैं बनूंगा। 2003 में खुराना को नहीं लौटने देना, इसी उधेड़बुन में पार्टी नेता लगे रहे और पिछली बार 2008 में विजय कुमार मल्होत्रा को कमजोर करने में किसी ने कसर नहीं छोड़ी। ऐसा नहीं है कि शीला सरकार ने पार्टी को टॉनिक देने वाले मौके न दिए हों। अब बिजली के खिलाफ आंदोलन को ही देख लीजिए। सरकार बीजेपी के किसी आंदोलन से नहीं घबराई। यहां तक कि केजरीवाल को पूछना पड़ा है कि भई आपने आंदोलन क्यों नहीं किया क्योंकि वे आंदोलन जनता के दिमाग में रजिस्टर ही नहीं हो पाए। बिजली आंदोलन की बजाय बीजेपी नेताओं की नजर इस सवाल पर अटकी हुई है कि आखिर अगले विधानसभा चुनाव किसके नेतृत्व में लड़े जाएंगे। अगर विजेंद्र गुप्ता को मौका मिल गया तो फिर उनकी टांग कैसे खींची जाए और अगर विजय गोयल आगे आ गए तो उन्हें कैसे पीछे किया जाए। बिजली आंदोलन भी इसी क्रेडिट की लड़ाई में उलझकर रह गया है। यही वजह है कि लोगों को यह लग रहा है कि केजरीवाल के आंदोलन के कारण सरकार डिफेंिसव मोड म ेंह ैऔर इन झटको ंका असर कम करने के लिए कोई फॉर्म्युला तलाश कर रही है। सरकार के इस फॉर्म्युले से जनता को राहत मिलेगी तो उसका श्रेय भी केजरीवाल को मिलेगा या फिर सरकार अपनी पीठ थपथपा लेगी। बीजेपी को कुछ क्यों नहीं मिलेगा, यह उसके लिए सोचने की बात है। – विशेष संवाददाता (दिल्ली)

Editorial of helpliene today “Why death sentence should be abandoned”

vinita sinha's editorial

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मौत की सजा क्यों खत्म हो?

26नवंबर 2008 को मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के एक मात्र जिंदा बचे पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब को आखिरकार फांसी पर चढा दिया गया। अजमल कसाब के लिए फांसी की सजा भी कम थी उसने अपने साथियों के साथ एक घृणित काम किया था जो किसी भी देश की संप्रभुता पर सीधा हमला था। निर्दोष लोगों की जान लेने के लिए पाकिस्तान के आंतकवादी संगठनों ने कसाब और उसके साथियों को भारत भेजा था। कसाब को तो कानून ने सजा दे दी लेकिन पाकिस्तान में आज भी उसके आका जिंदा बैठे है। कसाब की फांसी की सजा के बाद अब भारत सरकार का अगला लक्ष्य पाकिस्तान में बैठे साजिशकर्ताओं को भारत लाकर उनपर मुकदमा चलाना है। कसाब की फांसी की सजा के बाद अब कहा जा रहा हैं कि संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु को भी फांसी पर चढ़ा दिया जाना चाहिए। हालांकि राष्ट्रपति ने एक बार फिर गुरु की फांसी की याचिका को एकबार फिर गृहमंत्रालय के पास भेज दिया है। अफजल गुरु को फांसी देने के आदेश पूर्व राष्ट्रपति ने उसकी दया याचिका को ठुकरा कर दे दिए थे। दरअसल अफजल गुरु ने भी पाकिस्तानी आकाओं के साथ मिलकर देश की सर्वोच्च पंचायत के ऊपर हमले की साजिश रची थी। अब कहा जा रहा हैं कि अफजल के खिलाफ अदालत को कोई पु ता सबूत नहीं मिले। उसके मामले में सही से परिक्षण नहीं किया गया। इस तरह की बाते वे राजनीतिक संगठन और मानवाधिकार संगठन कह रहे हैं जो अफजल गुरु के मामले को लेकर राजनीति कर रहे हैं। अफजल गुरु के मुद्दे पर देश में राजनीति जमकर हो रही है दूसरी तरफ वह तिहाड़ जेल में आराम फरमा रहा हैं उसे भी पता हैं कि भारत में उसके हमदर्द राजनीतिक दलों में बहुत से लोग है जो उसे फांसी की सजा तो नहीं होने देंगे। भारत में फांसी की सजा पर पर विवाद खड़ा होने लगा है एक वक्त था जब किसी अपराधी को फांसी की सजा होती थी तो कहा जाता था कि इसने अपराध ही इतना बड़ा किया है कि फांसी तो होनी ही थी। आज देश से फांसी की सजा को खत्म करने के लिए भी आवाज उठ रही है। इस दिशा में सबसे बड़ा सवाल यह हैं कि अगर फांसी की सजा के प्रावधान को खत्म कर दिया जाए तो समाज में अपराधियों को भय नहीं रहेगा। बड़े से बड़ा अपराध करने वाले यही समझेंगे कि मौत की सजा तो नहीं होगी चाहे सारी उम्र जेल में बितानी पड़ जाए। आज जिन लोगों को आजीवन कारावास की सजा हो चुकी है उन्हें जेल में तमाम सुविधाए मुहैया कराई जाती है। पैसों के बल पर जेल में बंद बड़े अपराधी वहा ऐश कर रहे है। अगर ऐसे अपराधियों को मौत की सजा का भय नहीं रहा तो फिर समाज में अपराधों की बाढ़ आ जाएगी। ऐसा कहा जा रहा हैं कि दुनिया के 140 मुलकों में फांसी की सजा नहीं है लेकिन इसी संदर्भ में हमें यह भी समझना होगा कि दुनिया में कहीं भी जाति प्रथा, इज्जत के लिए हत्या, बच्चों से बलात्कार के बाद हत्या, दहेज के लिए हत्या, जमीन जायदाद के लिए हत्या, अपरहण के बाद हत्या और दलितों पर अत्याचार के बाद उन्हें मौत के घाट उतारने जैसे मामले सुनने में नहीं आते लिहाजा वहां कानून की किताब से मौत की सजा को खत्म कर दिया गया है। लेकिन वहा मौत की सजा के बदले 100 से 300 साल की सजा जैसा प्रावधान हैं। संगीन अपराध के अपराधियों को सारी उम्र जेल में ही सडऩा पड़ता है न उन्हें पेरोल दिया जाता है न ही उनसे मिलने के लिए किसी को इजाजत दी जाती भारत में यह संभव नहीं है । लिहाजा फांसी के प्रावधान को खत्म करने की मांग करने वालों को पहले सोचना चाहिए कि हमारे देश में यह संभव है? देश की शीर्ष अदालत ने मौत की सजा दिए जाने वाले मामलों को लेकर एक निर्देश दे रखा है संगीन से संगीन जुर्म को अंजाम देने के मामलों में ही मौत की सजा दी जाती है। देश के अपराधियों में मौत की सजा का भय रहना चाहिए वरना अपराधों की रोकथाम संभव नही हों सकती। मौत की सजा को खत्म करने की मांग रखने वाले संगठनों को पहले इस दिशा में सोचना चाहिए। मौत की सजा क्यों खत्म हो?